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कविता

उसका लौटना

शिरीष कुमार मौर्य


अभी मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे ख़ूबसूरत लड़की थी
अब लौट आई है
हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस हमारे ही मुहल्ले में

उसे कहाँ रखे -
समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार

उसके शरीर पर पिटने के स्थायी निशान हैं
और चेहरे पर उतना ही स्थायी एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता

जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिंदुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा
और हड़बड़ी है
हालाँकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामंत हो जाता है यहाँ

तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर
खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुंदर पहचान

महान हिंदू परंपराओं के अनुसार
कुल-गोत्र में
उसकी वापसी संभव नहीं
तब भी
उसने अपनाया है दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी
अपने कुछ
गुमनाम चाहने वालों की
स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है
उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह

जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का
विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लंबे-लंबे डग भरती

मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिह्नों की गवाह रहेगी
ये धरती

हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिंदा हुए
नज़रें उठाए ?

वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में

पहले भी घूमते थे
शोहदे
उसकी गली में
लेकिन
उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो
महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी
परीलोक की लड़की थी

पर अब
कोई भी उधेड़ सकता है
सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर

राह चलते
कंधा मार सकता है
उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर

कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में
निरुपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है
उसकी माँ

पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए
कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता

एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई पुरुषों से भर गई
उसकी दुनिया

खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन
अपने घर की
खुली हुई
बिना मुंडेर वाली ख़तरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !

आग से ?
या पानी से ?

हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के
मिलने से
जैसे बनती है भाप

और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ

मैं सोचता हूँ
तो
वो मुझे
हाथ में रैकेट संभाले आकाश की ओर
आती साँझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती
दीखती है

दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का
कितना असंभव पाठ है
यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से
सीखती है !
 


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